कोशिशें कर रहा हूँ लाखों हर रोज़ ख़ुद को बेहतर बनाने की,
पर कम्बख्त आदतों ने ठान ली है रोज़ मुझे आजमाने की,
ये ज़द्दोज़हद ना जाने कब तक चलेगी?
कब मुझे अपनी मनचाही शख्सियत मिलेगी?
कब होगा दीदार एकमेव रूह का 
कब "अहम् ब्रह्मास्मि" की ज्योत मुझमे सच्ची जलेगी?

अभी तलक तो हर क्षण अंतर-द्वन्दों में ढलता है 
कभी धरा तो कभी गगन में मन ये सदा भरमता  है 
और कभी तो धरती के भीतर गहरे अंधेरो में जा जाकर 
छुपकर अपनी अंधी वासनाओं में जीता मरता है 
फिर बाहर आकर आंसू बहाता अपने से ही पूछता है 
कौन है वो जो मुझे बार बार यहाँ धकेलता है?

रोज़ नए उपदेश सुने, सुने नए व्याख्यानों को 
कई किताबें छान डाली, पर जूं न रेंगी कानो को
कर्मयोग का रहस्य पढ़ा पर कर्म की व्याख्या पता नहीं 
भक्ति भजन सब सुन डाले पर ईश्वर से सच्चा प्रेम जगा नहीं 
योग तो बहुत लुभावन लगे पर करने का कुछ चाव नहीं 
ज्ञानी बना प्रवचन सुनाये पर अंतर का कोई ज्ञान नहीं 
मुझसे बेहतर तो अनपढ़ होना है जिसमे कोई द्वन्द नहीं 
सच्चा ज्ञानी वही जिसके कथनी और करनी में कोई भेद नहीं

अबला असहायों के ऊपर नीच क्रोध दिखलाता है 
सबल के सामने लेकिन भीगी बिल्ली बन जाता है 
जो तुझसे प्रेम दिखाए वही तेरा अपराधी बन जाता है 
अपनी हीन बुद्धि का गर्व तू उसे बहुत दिखलाता है
चार किताबें पढ़के तू प्रवचन बहुत सुनाता है 
खुद कुछ भी अनुभव नहीं, पर औरों को समझाता है
अरे मूर्ख कुछ खुद भी सीख, दुनिया को बहुत सीखा लिया
यदि १ प्रतिशत भी सीखा, तो समझ बहुत कुछ पा लिया

अहंकार को त्याग, छोड़ दे अभिमान, लोभ और मिथ्याचार
अगर बदलना है तो पहले बदल अपना छद्म व्यभिचार 
प्रेम की भाषा बोल अगर मुख खोलना ही है तो 
नहीं तो मौन होना ही होगा जग पर बड़ा उपकार
अगर जग में रहना है प्रसन्न तो बदल दे अपना व्यवहार
सब द्वंदों से मुक्त होकर बन जा योगी
मुक्ति इस संसार में सिर्फ योगी की ही होगी।




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