कोशिशें कर रहा हूँ लाखों हर रोज़ ख़ुद को बेहतर बनाने की, पर कम्बख्त आदतों ने ठान ली है रोज़ मुझे आजमाने की, ये ज़द्दोज़हद ना जाने कब तक चलेगी? कब मुझे अपनी मनचाही शख्सियत मिलेगी? कब होगा दीदार एकमेव रूह का कब "अहम् ब्रह्मास्मि" की ज्योत मुझमे सच्ची जलेगी? अभी तलक तो हर क्षण अंतर-द्वन्दों में ढलता है कभी धरा तो कभी गगन में मन ये सदा भरमता है और कभी तो धरती के भीतर गहरे अंधेरो में जा जाकर छुपकर अपनी अंधी वासनाओं में जीता मरता है फिर बाहर आकर आंसू बहाता अपने से ही पूछता है कौन है वो जो मुझे बार बार यहाँ धकेलता है? रोज़ नए उपदेश सुने, सुने नए व्याख्यानों को कई किताबें छान डाली, पर जूं न रेंगी कानो को कर्मयोग का रहस्य पढ़ा पर कर्म की व्याख्या पता नहीं भक्ति भजन सब सुन डाले पर ईश्वर से सच्चा प्रेम जगा नहीं योग तो बहुत लुभावन लगे पर करने का कुछ चाव नहीं ज्ञानी बना प्रवचन सुनाये पर अंतर का कोई ज्ञान नहीं मुझसे बेहतर तो अनपढ़ होना है जिसमे कोई द्वन्द नहीं सच्चा ज्ञानी वही जिस...
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